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Showing posts from August, 2024

अध्याय 4: अर्धनारीश्वर (रामधारी सिंह दिनकर)

अर्धनारीश्वर शंकर और पार्वती का कल्पित रूप है, जिसका आधा अंग पुरुष का और आधा अंग नारी का होता है। एक ही मूर्ति को दो आँखें, एक रसमयौ और दूसरी विकराल एक ही मूर्ति की दो भुजाएँ, एक त्रिशूल उठाए और दूसरी की पहुँची पर चूड़ि‌याँ और उँगलियाँ अलक्तक से लाल; एवं एक ही मूर्ति के दो पाँव, एक जरीदार साड़ी से आवृत और दूसरा बाचंबर से ढँका हुआ ।                                                                  एक हाथ में डमरू, एक में वीणा परम उदार ।                                                                       एक नयन में गरल, एक में संजीवन की धार ।            ...

अध्याय 3: संपूर्ण क्रांति (जयप्रकाश नारायण)

 बिहार प्रदेश 'छात्र संघर्ष समिति' के मेरे युवक साथियो, बिहार प्रदेश के असंख्य नागरिक भाइयो और बहनो । अभी-अभी रेणु जी ने जो कविता पढ़ी, अनुरोध तो वास्तव में उनका था, सुनाना तो वह चाहते थे; मुझसे पूछा गया कि वह कविता सुना दें या नहीं; मैं ने स्वीकार किया। लेकिन उसने बहुत सारी स्मृतियाँ, और अभी हाल की बहुत दुखद स्मृति को जाग्रत कर दिया है। इससे हृदय भर उठा है। आपको शायद मालूम न होगा कि जब मैं वेल्लोर अस्पताल के लिए रवाना हुआ था, तो जाते समय मद्रास में दो दिन अपने मित्र श्री ईश्वर अय्यर के साथ रुका था। वहाँ दिनकर जी, गंगाबाबू मिलने आए थे। बल्कि, गंगाबाबू तो साथ ही रहते थे; और दिनकर जी बड़े प्रसन्न दिखे। उन्होंने अभी हाल की अपनी कुछ कविताएँ सुनाई और मुझसे कहा कि आपने जो आंदोलन शुरू किया है, जितनी मेरी आशाएँ आपसे लगी थीं उन सबकी पूर्ति, आपके इस आंदोलन में, इस नए आवाहन में, देश के तरुणों का आपने जो किया है, मैं देखता हूँ। (तालियाँ) तालियाँ हरगिज न बजाइए, मेरी बात चुपचाप सुनिए । अब मेरे मुँह से आप हुंकार नहीं सुनेंगे। लेकिन जो कुछ विचार मैं आपसे कहूँगा वे विचार हुंकारों से भरे होंगे। ...

अध्याय 2: उसने कहा था

 बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर एक लड्‌ढीवाले के लिए ठहरकर सब्र का समुद्र उमड़ाकर 'बचो खालसाजी' 'हटो भाईजी' 'ठहरना भाई' 'आने दो लालाजी' 'हटो बाछा' करते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बतकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं; चलती है, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती है। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी दे...