अध्याय 3: संपूर्ण क्रांति (जयप्रकाश नारायण)

 बिहार प्रदेश 'छात्र संघर्ष समिति' के मेरे युवक साथियो, बिहार प्रदेश के असंख्य नागरिक भाइयो और बहनो ।

अभी-अभी रेणु जी ने जो कविता पढ़ी, अनुरोध तो वास्तव में उनका था, सुनाना तो वह चाहते थे; मुझसे पूछा गया कि वह कविता सुना दें या नहीं; मैं ने स्वीकार किया। लेकिन उसने बहुत सारी स्मृतियाँ, और अभी हाल की बहुत दुखद स्मृति को जाग्रत कर दिया है। इससे हृदय भर उठा है। आपको शायद मालूम न होगा कि जब मैं वेल्लोर अस्पताल के लिए रवाना हुआ था, तो जाते समय मद्रास में दो दिन अपने मित्र श्री ईश्वर अय्यर के साथ रुका था। वहाँ दिनकर जी, गंगाबाबू मिलने आए थे। बल्कि, गंगाबाबू तो साथ ही रहते थे; और दिनकर जी बड़े प्रसन्न दिखे। उन्होंने अभी हाल की अपनी कुछ कविताएँ सुनाई और मुझसे कहा कि आपने जो आंदोलन शुरू किया है, जितनी मेरी आशाएँ आपसे लगी थीं उन सबकी पूर्ति, आपके इस आंदोलन में, इस नए आवाहन में, देश के तरुणों का आपने जो किया है, मैं देखता हूँ। (तालियाँ) तालियाँ हरगिज न बजाइए, मेरी बात चुपचाप सुनिए ।

अब मेरे मुँह से आप हुंकार नहीं सुनेंगे। लेकिन जो कुछ विचार मैं आपसे कहूँगा वे विचार हुंकारों से भरे होंगे। क्रांतिकारी वे विचार होंगे, जिन पर अमल करना आसान नहीं होगा। अमल करने के लिए बलिदान करना होगा, कष्ट सहना होगा, गोली और लाठियों का सामना करना होगा, जेलों को भरना होगा। जमीनों की कुर्कियाँ होंगी। यह सब होगा। यह क्रांति है मित्रो, और संपूर्ण क्रांति है। यह कोई विधानसभा के विघटन का ही आंदोलन नहीं है। वह तो एक मंजिल है, जो रास्ते में है। दूर जाना है, दूर जाना है। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में अभी न जाने कितने मीलों इस देश की जनता को जाना है उस स्वराज्य को प्राप्त करने के लिए, जिसके लिए देश के हजारों-लाखों जवानों ने कुर्बानियाँ दी हैं; जिसके लिए सरदार भगतसिंह, उनके साथी, बंगाल के सारे क्रांतिकारी साथी, महाराष्ट्र के साथी, देशभर के क्रांतिकारी सभी गोली का निशाना बने, या तो फाँसी पर लटकाए गए; जिस स्वराज्य के लिए लाखों-लाख देश की जनता बार-बार जेलों को भरती रही है। लेकिन आज सत्ताइस अ‌ट्ठाइस वर्ष के बाद का जो स्वराज्य है, उसमें जनता कराह रही है। भूख है, महँगाई है, भ्रष्टाचार है, कोई काम नहीं जनता का निकलता है बगैर रिश्वत दिए। सरकारी दफ्तरों में, बैंकों में, हर जगह; टिकट लेना है उसमें, जहाँ भी हो, रिश्वत के बगैर काम नहीं जनता का होता। हर प्रकार के अन्याय के नीचे जनता दब रही है। शिक्षा-संस्थाएँ भ्रष्ट हो रही हैं। हजारों नौजवानों का भविष्य अँधेरे में पड़ा हुआ है। जीवन उनका नष्ट हो रहा है। शिक्षा दी जाती है-गुलामी की शिक्षा।

शिक्षा पाकर दर-दर ठोकरें खाना नौकरी के लिए। नौकरियाँ मिलती ही नहीं। दिन पर दिन बेरोजगारी बढ़ती जाती है। गरीब की बेरोजगारी बढ़ती जाती है। 'गरीबी हटाओ' के नारे जरूर लगते हैं, लेकिन गरीबी बढ़ी है पिछले वर्षों में।

तो मित्रो। आज की स्थिति यह है। और इस स्थिति में वहाँ दिनकर जी ने कुछ हमें अपने शब्द सुनाए, बड़े हृदयग्राही थे। और उसी रात जब विदा हुए उसी रात को हमारे मित्र रामनाथ जी गोयनका ('इंडियन एक्सप्रेस' के मालिक) के घर पर वह मेहमान थे। रात को दिल का दौरा पड़ा, तीन मिनट में उनको अस्पताल पहुँचाया गोयनका जी ने, तीन मिनट में। 'विलिंगडन नर्सिंग होम' शायद उसे कहते हैं। सारा इंतजाम था वहाँ पर। पटना का अस्पताल तो....... पता नहीं तीन घंटे में भी तैयार न हो पाता। सभी डॉक्टर सब तरह के औजार लेकर तैयार थे। लेकिन दिनकर जी का हार्ट फिर से जिंदा नहीं हो पाया। उसी रात उनका निधन हो गया। ऐसी चोट लगी, उनकी यह कविता सुनके; उनका यह सुंदर, सौम्य, जोशीला चेहरा याद आ गया। आज लगता है, हमारे दो मित्रों की कितनी कमी है। आज भाई बेनीपुरी जी होते, उनकी लेखनी में जो ताकत थी, आज के जुलूस का, आज की इस सभा का जो वर्णन कह देते, एक-एक शब्द में अंगार होते। आज दिनकर जी जो कविता लिखते, नए भारत के नवनिर्माण के लिए, जो देश के युवकों और छात्रों और देश के साधारण व्यक्तियों, नर और नारियों के द्वारा आज से हो रहा है शुरू, प्रारंभ हो गया है, वह कविता शायद इस नवीन क्रांति का एक अमर साहित्य बन जाती। लेकिन आज दोनों ही नहीं हैं; न दिनकर जी हैं, न बेनीपुरी जी ।

तो मित्रों। ये स्मृतियाँ जगी हैं और इनका भार हृदय पर है। मैं तो थक गया हूँ लेकिन आज बड़ी भारी जिम्मेदारी हमारे कंधों पर आई है और मैंने इस जिम्मेदारी को अपनी तरफ से मौग करके नहीं लिया है। तरुणों से, छात्रों से बराबर कहता रहा हूँ जब पहला हमने आवाहन किया था 'यूथ फॉर डिमॉक्रेसी' का; लोकतंत्र में युवकों का क्या रोल है, यह हमने जो बताया था, उसमें लिखा था और उसके बाद बराबर कहता रहा हूँ, संचालन समिति में बहस करता रहा हूँ 'हम बूढ़े हो गए, हमारी सलाह ले लीजिए। हम दूसरी पीढ़ी के हो गए। आप नई पीढ़ी के लोग हैं। देश का भविष्य आपके हाथों में है। उत्साह है आपके अंदर, शक्ति है आपके अंदर, जवानी है आपके अंदर आप नेता बनिए। मैं आपको सलाह दूँगा। तो छात्रों ने कहा-जयप्रकाश जी, मार्गदर्शन से काम नहीं चलेगा, आपको नेतृत्व स्वीकार करना पड़ेगा। मैं टालता रहा, टालता रहा, लेकिन अंत में वेल्लोर जाते समय मैंने उनके आग्रह को स्वीकार किया। स्वीकार करते समय मैंने अनुभव किया अपनी अयोग्यता का, और नम्रतापूर्वक यह स्वीकार किया। परंतु छात्रों से भी, आप सबसे भी यह अनुरोध है कि नाम के लिए मुझे नेता नहीं बनना है। मुझे सामने खड़ा करके और कोई हमें 'डिक्टेट' करे पीछे से कि क्या करना है जयप्रकाश नारायण तुम्हें, तो इस नेतृत्व को कल में छोड़ देना चाहूँगा। मैं सबकी सलाह लूँगा तालियाँ नहीं, बात सुनिए, बात समझिए सबकी बात सुनूँगा। छात्रों की बात, जितना भी ज्यादा होगा, जितना भी समय मेरे पास होगा, उनसे बहस करूंगा, समहूँगा और अधिक से अधिक उनकी बात मैं स्वीकार करूंगा। आपकी बात स्वीकार करूँगा, जन संघर्ष समितियों की; लेकिन फैसला मेरा होगा। इस फैसले को इनको मानना होगा और आपको मानना होगा । तब तो इस नेतृत्व का कोई मतलब है, तब यह क्रांति सफल हो सकती है। और नहीं, तो आपस के झगड़ों में, बहसों में, पता नहीं कि हम किधर बिखर जाएँगे और क्या नतीजा निकलेगा ।

बहुत दिनों से सार्वजनिक जीवन में हूँ। 1921 में, जनवरी के महीने में, इसी पटना कॉलेज में आई० एससी० का विद्यार्थी था। हमारे साथ, हमारे निकट के साथी थे; वे सब छात्रवृत्ति पानेवाले थे। मुझे भी छात्रवृत्ति मिलती थी। सब अव्वल दर्ज के, 'क्रीम' थे उस समय के विद्यार्थियों में। और हम सबने एक साथ गाँधीजी के आवाहन पर असहयोग किया। असहयोग करने के बाद करीब डेढ़ वर्ष यों ही मेरा जीवन बीता। चूंकि मैं साइंस का विद्यार्थी था, तो राजेंद्र बाबू के सचिव या मंत्री या मित्र या जो कहिए-मथुराबाबू उनके जामाता बाबू फूलदेवसहाय वर्मा थे, उनके पास भेज दिया गया कि फूलदेव बाबू के साथ रहो और उनकी लैबोरेटरी में, उनकी प्रयोगशाला में कुछ प्रयोग करो और उनसे कुछ सीखो । महामना मदन मोहन मालवीय जी के लिए मेरे हृदय में पूजा का भाव है, परंतु हिंदू विश्वविद्यालय में भी दाखिल होने के लिए मैं तैयार नहीं था, क्योंकि सरकारी रुपया, सरकारी एड, मदद विश्वविद्यालय को मिलती थी। स्वतंत्र नहीं था वह, पूर्ण रूप से राष्ट्रीय विद्यालय नहीं था। तो मैं किसी विद्यालय में नहीं गया। बिहार विद्यापीठ में मैंने परीक्षा दी आई० एससी० की। पास तो करना ही था, पास कर गया। उसके बाद बचपन में जब हाईस्कूल में था मैंने स्वामी सत्यदेव के भाषण सुने थे अमेरिका के बारे में। कोई धनी घर का नहीं हूँ। थोड़ी सी खेती और पिताजी नहर विभाग में जिलादार, बाद में रेवेन्यू असिस्टेंट हुए। नॉन-गजटेड अफसर थे। उनकी हैसियत नहीं थी कि वह मुझे अमेरिका भेजें। तो मैंने सुना था कि अमेरिका में मजदूरी करके लड़‌के पढ़ सकते हैं। मेरी इच्छा थी कि आगे पढ़ना है मुझे; आंदोलन तो गिराव पर आ गया है; चढ़ाव पर था, उतर चुका है; इस बीच अमेरिका से कुछ शिक्षा प्राप्त करके आ जाऊँ । इसीलिए अमेरिका गया-अमेरिका गया। कुछ लोग हैं जो हमारे पता नहीं कि उन्हें किस नाम से पुकारू-मुझे आज वर्षों से गालियाँ देते रहे हैं। कितनी गालियाँ मुझे दी गई हैं। चूंकि अमेरिका में मैंने पढ़ा, इसलिए मैं अमेरिका का दलाल बना हूँ। 'निक्सन को दे दो तार, जयप्रकाश की हो गई हार', ये नारे लगाए।

मित्रो, अमेरिका में बागानों में मैंने काम किया, कारखानों में काम किया-लोहे के कारखानों में । जहाँ जानवर मारे जाते हैं, उन कारखानों में काम किया। जब यूनिवर्सिटी में पड़ता था, छुट्टियों में काम करके इतना कमा लेता था कि कुछ खाना हम तीन-चार विद्यार्थी मिलकर पकाते थे, और सस्ते में हम लोग खा-पी लेते थे। एक कोठरी में कई आदमी मिलकर रह लेते थे, रुपया बचा लेते थे, कुछ कपड़े खरीदने, कुछ फीस के लिए। और बाकी हर दिन रविवार को भी छुट्‌टी नहीं.... एक घंटा रेस्त्रों में, होटल में या तो बर्तन धोया या वेटर का काम किया, तो शाम को रात का खाना मिल गया, दिन का खाना मिल गया। किराया कहाँ से मकान का हमको आया? बराबर दो-तीन लड़‌के कितने वर्षों तक दो चारपाई नहीं थी कमरे में एक चारपाई पर मैं और कोई न कोई अमेरिकन लड़‌का रहता था। हम दोनों साथ सोते थे, एक रजाई हमारी होती थी। इस गरीबी में मैं पढ़ा हूँ। इतवार के दिन या कुछ 'ऑड टाइम' में, यह जो होटल का काम है-उसको छोड़ करके, जूते साफ करने का काम 'शू शाइन पार्लर' में, उससे ले करके कमोड साफ करने का काम होटलों में करता था। वहाँ जब बी० ए० पास कर लिया, स्कॉलरशिप मिल गई; तीन महीने के बाद असिस्टेंट हो गया डिपार्टमेंट का, 'ट्यूटोरियल क्लास' लेने लगा, तो कुछ आराम से रहा इस बीच में। इन लोगों से पूछिए। मेरा इतिहास ये जानते हैं और जानकर भी मुझे गालियाँ देते

अमेरिका में विस्कासिन में, मैडिसन में, मैं घोर कम्युनिस्ट था। वह लेनिन का जमाना था, वह ट्राटस्की का जमाना था। 1924 में लेनिन मरे थे, और 1924 में मैं मार्क्सवादी बना था और दावे के साथ कह सकता हूँ कि उस समय तक जो भी मार्क्सवाद के ग्रंथ छपे थे अंग्रेजी में, हम लोगों ने पढ़ डाले थे। रात-रात को रोज एक रशियन टेलर था, दर्जी था, उसके यहाँ हमारे क्लास लगते थे। और वहाँ से जब भारत लौटा था, घोर कम्युनिस्ट चनकर लौटा था; लेकिन मैं काँग्रेस में दाखिल हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी में क्यों नहीं दाखिल हुआ ? मैंने जो लेनिन से सीखा था, वह यह सीखा था कि जो गुलाम देश हैं, वहाँ के जो कम्युनिस्ट हैं, उनको हरगिज वहाँ की आजादी की लड़ाई से अपने को अलग नहीं रखना चाहिए- यद्यपि उस लड़ाई का नेतृत्व, जिसको मार्क्सवादी भाषा में 'बुर्जुआ क्लास' कहते हैं, उस क्लास के हाथ में हो; पूँजीपतियों के हाथ में उसका नेतृत्व हो, फिर भी कम्युनिस्टों को अलग नहीं रहना चाहिए। अपने को आइसोलेट नहीं करना चाहिए ।

पहली बात जो मैंने नोट की है, आपसे कहने के लिए वह इस सरकार के बारे में है, आज से तीन दिन हुए। गफूर साहब मिलने आए थे, वहुत प्रेम से मिले। उसके दो दिन, के बाद चंद्रशेखर बाबू मिलने आए, बहुत प्रेम से मिले। लेकिन प्रधानमंत्री से ले करके, दीक्षित जी से नीचे सब लोग मुझे डिमॉक्रसी का सबक सिखाते हैं। इनमें से किसी को कोई अधिकार नहीं है कि जयप्रकाश नारायण को लोकतंत्र की शिक्षा दें, लेकिन वे जयप्रकाश नारायण को शिक्षा देने की हिम्मत करते हैं और इनकी ... हरकत देखिए शांतिमय प्रदर्शन, शांतिमय जुलूस के लिए हजारों लोग आ रहे हैं। प्रदेश के कोने-कोने से, छात्र आ रहे हैं, किसान आ रहे हैं, मजदूर आ रहे हैं, मध्यम वर्ग के लोग आ रहे हैं, कहीं पैदल आ रहे हैं, कुछ बस से आ रहे हैं, कहीं रेलों से आ रहे हैं, कोई टूक भाड़े पर ले करके, डीजल अपना खरीद करके, ले करके आ रहे हैं। जहाँ-तहाँ रोका है इनको, लड़‌कों को पीटा है, गिरफ्तार किया है अनायास, कोई कारण नहीं है। और यहाँ हमसे आकर के सब मीठी-मीठी बातें करते हैं। इन्होंने जिद की कि इस रास्ते से जुलूस नहीं जाएगा, इसमें यह खतरा है, वह सखतरा है। मुझे कोई खतरा दिखाई नहीं दिया। लेकिन जब उन्होंने कहा कि शायद जेल तोड़ने की कोशिश हो और शायद उन्हें गोली चलानी पड़े तो मैंने कहा, इसकी जिम्मेदारी मैं नहीं लेता हूँ। आंदोलन हमारा किसी दूसरे उद्देश्य से हो रहा है, बीच में यह 'डाइवर्शन' हो जाए, रास्ता ही भटक जाएँ हम लोग, यह नहीं चाहते। तो चलिए, जो आप कहते हैं, वही मान लेता हूँ। तो ये बिगड़े भी होंगे छात्र लोग। उधर से जाना था आप इधर से क्यों आए ? हालाँकि वे उन लड़कों को ले आए और एक दूसरी बिल्डिंग में खड़ा करके जो लड़के हमारी छात्र संघर्ष समिति के वहाँ जेल में हैं-उनको जुलूस दिखाने के लिए ले आए। मैं नहीं जानता हूँ कि अंग्रेजी सरकार के जमाने में भी इस प्रकार का व्यवहार कभी हुआ हो। लोग रेलों से उत्तार दिए गए, बसों से उत्तार दिए गए। टिकट था उनके पास। बेटिकट लोग थे, उनको उतार दिया अलग। मुजफ्फरपुर की रिपोर्ट आपने अखबारों में पढ़ी होगी। सारे डिवीजन में क्या-क्या नहीं हुआ है। शर्म नहीं आती इन लोगों को ? डिमॉक्रेसी की बात करते हैं। लोकतंत्र में, डिमॉक्रसी में जनता को अधिकार नहीं है कि जहाँ भी चाहें शांतिपूर्ण सभा करें अपनी ? जहाँ भी चाहें शांतिपूर्ण प्रदर्शन करें वे ? राज्यपाल के यहाँ जाना हुआ तो लाखों की तादाद में जाएँ? असेंबली के सामने जाएँ ? उनको पूरा अधिकार है। हिंसा करे कोई, तो दूसरी बात है।

हमसे मिलने आए पुलिस के एक उच्च अधिकारी ने कहा, बड़े उच्चाधिकारी ने कहा-नाम लेना यहाँ ठीक नहीं होगा कि मैंने दीक्षित जी के मुँह से सुना है कि 'जयप्रकाश नारायण नहीं होते तो बिहार जल गया होता।' जब जयप्रकाश नारायण के बारे में ऐसा आप सोचते हैं, तो जयप्रकाश नारायण के लिए यह सारा क्यों होता है? तो, उनके नेतृत्व में यह प्रदर्शन और यह सभा होने वाली है, क्यों लोगों को रोकते हैं आप ? जनता से घबड़ाते हैं आप ? जनता के आप प्रतिनिधि हैं? किसकी तरफ से शासन करने बैठे हैं आप ? आपकी हिम्मत कि लोगों को पटना आने से रोक लें? उनकी राजधानी है। आपकी राजधानी है ? यह पुलिसवालों का देश है? यह जनता का देश है। डूब जाना चाहिए इन लोगों को। ऐसी नीचता का व्यवहार । बहुत कठोर शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ, मैं कठोर शब्द का प्रयोग नहीं करता, लेकिन यह नीचता का व्यवहार है। अगर कोई डिमॉक्रेसी का दुश्मन है, तो वे लोग दुश्मन हैं, जो जनता के शांतिमय कार्यक्रमों में बाधा डालते हैं, उनकी गिरफ्तारियाँ करते हैं। उन पर लाठी चलाते हैं, गोलियाँ चलाते हैं। यह डिमॉक्रेसी है ? इसे बदलना चाहती है जनता-जयप्रकाश नारायण, छात्र, युवकः क्योंकि जो भी आंदोलन इस देश में आज उठेगा उसका नेता युवक रहेगा, छात्र रहेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है हमको।

मित्रो, एक बात तो यह कहनी थी। मैं जानता हूँ कि डॉक्टर रहमान यहाँ बैठे होंगे, तो वे कुछ चिंता में पड़े होंगे, कि इस जोर से बोलने का असर मेरे हृदय पर बुरा होगा। मैं भी समझता हूँ। अब जरा अपने को बाँध के बोलूँगा ।

अभी हाल में मैं वेल्लोर में था, तो हमारे परम मित्र और स्नेही उमाशंकर जी दीक्षित पटना आए थे। उन्होंने मेरे संबंध में कुछ अच्छी बातें कहीं। साथ-साथ कई प्रश्न उन्होंने उठाए। मेरा उनका बहुत पुराना संबंध है। 32-33 का आंदोलन जो चला था, उसमें वह 'अंडरग्राउंड' बंबई के बंबई में वह रहते ही थे-अंडरग्राउंड नेता थे। और सदानंद जी ने, जो फ्री प्रेस के मालिक भी थे उसकी स्थापना की थी उन्होंने उनको 'ब्रेन ऑफ बांबे' कहा था। मुझे भी कोई बड़ी पदवी दी थी, पर मैं अपनी प्रशंसा नहीं करूँगा । उस समय दीक्षित जी से हमारा परिचय और हमारी घनिष्ठता, मित्रता हुई। और 'अंडरग्राउंड' जमाने की जो मित्रता होती है, वह ठोस होती है चाहे हम कहीं रहें, वह कहीं रहें ठोस रहती है। उसके बाद हम एक दूसरे के मित्र आज तक बने हुए हैं।

कुछ ऐसे मित्र हैं, जिनके भाव अच्छे हैं। हमारे पुराने मित्र, जो सोशलिस्ट पार्टी में थे या जो नहीं भी थे.... चाहते हैं कि जयप्रकाश नारायण और इंदिरा जी में कुछ मेल-मिलाप हो। तो मित्रो, मेरा किसी व्यक्ति से झगड़ा नहीं है। किसी व्यक्ति से झगड़ा नहीं है चाहे वे इंदिरा जी हों या कोई हों। हमें तो नीतियों से झगड़ा है, सिद्धांतों से झगड़ा है, कार्यों से झगड़ा है। जो कार्य गलत होंगे, जो नीति गलत होगी, जो सिद्धांत प्रिंसिपल्स गलत होंगे, जो पॉलिसी गलत होगी चाहे वह कोई भी करे-मैं विरोध करूंगा, अपनी अकल के मुताबिक । हम लोग इनकी तरह नौजवान थे उस जमाने में, लेकिन यह जुर्रत होती भी हम लोगों की कि बापू के सामने हम कहते थे कि हम नहीं मानते हैं बापू यह बात। और बापू में इतनी महत्ता थी, इतनी महानता भी कि बुरा नहीं मानते थे। फिर भी बुलाकर हमें प्रेम से समझाना चाहते थे, समझाते थे। तो, उनकी भी आलोचना की है मैंने। उस जमाने में तो मैं घोर मार्क्सवादी था। बाद में लोकतांत्रिक समाजवादी बना । किंतु बापू को मृत्यु के बाद, कई वर्षों के बाद 1954 में-मैं सर्वोदय में आया, गया (बिहार) में। जवाहरलाल जी थे, एक' बड़े भाई थेः मैं उनको 'भाई' कहता ही था। उनका बड़ा स्नेह था हमारे ऊपर। पता नहीं, क्यों मुझे यह मानते थे बहुत । मैं उनका चड़ा आदर और प्रेम करता था, लेकिन उनकी कटु आलोचना करता था। उनमें भी बड़प्पन था। अक्सर तो उन्होंने हमारी आलोचनाओं का बुरा नहीं माना, लेकिन पटना फायरिंग पर जो मैंने बयान दिया था मैं मानता हूँ कि बहुत सख्त भाषा का मैंने प्रयोग किया था उस पर वह बहुत नाराज हुए। लालबहादुर जी ने कश्मीर के मामले में कुछ किया उन्होंने, मैंने उनकी भी आलोचना की। उनको तार भी दिया कि यह बहुत गलत काम आपने किया है; इससे कश्मीर के सवाल को हल करने में आपको दिक्कत होगी। थोड़े ही दिनों में, 18 महीनों में वह चल बसे। देश का दुर्भाग्य है !

इंदिरा जी से जो मेरे मतभेद हैं, वे जवाहरलाल जी के साथ जो मतभेद थे, उनसे कहीं ज्यादा गंभीर और 'सीरियस' हैं। जवाहरलाल जी से परराष्ट्र नीतियों के संबंध में स्वराष्ट्र के संबंध में अधिक उनसे हमारा मतभेद नहीं था-तिब्बत के मामले में मतभेद था, चीन के मामले में था, हंगरी के मामले में था। और मैं कोई गर्व नहीं करता हूँ, मैंने उस समय जो आलोचना की, हंगरी के मामले में जो कुछ कहा, जवाहरलाल जी को बाद में मानना पड़ा। तिब्बत के बारे में मेरी बात तो नहीं मानी उन्होंने। लेकिन जब चीन ने उनको धोखा दिया, तो उस धोखे के कारण उनके हृदय को ऐसी चोट लगी कि दो बरस में चले गए, संभल नहीं सके। ऐसा घाव लगा जब चीन ने आक्रमण कर दिया। वह कभी उम्मीद नहीं करते थे, आशा नहीं करते थे कि चीन ऐसा करेगा, थोड़ी इनकी भी गलती थी। तो, परराष्ट्र नीतियों के संबंध में मतभेद था उनसे; अंतर्देशीय प्रश्नों में नहीं था उतना मतभेद ।

अब एक बात ले लीजिए, जिसके चलते बहुत ज्यादा करपान राजनीति में है। वह क्या है? इलेक्शन का खर्चा, चुनाव का खर्चा। करोड़ों रुपए वे चुनाव पर खर्च करेंगे। एक तरफ 'गरीबी हटाओ' का नारा लगाएँगे, समाजवाद का नारा लगाएँगे, और यह सब रुपया ब्लैक मार्केटियर लोगों से आप इक‌ट्ठा करेंगे' अनअकाउंटेड मनी', करोड़ों रुपए, जिसका कोई हिसाब नहीं, कोई किताब नहीं ।

आज से नहीं, बरसों से मैं पुकार रहा हूँ कि भाई, इस चुनाव की पद्धति में आमूल परिवर्तन होना चाहिए, चुनाव का खर्च कम करना चाहिए अगर चाहते हैं आप कि गरीब उम्मीदवार खड़ा हो सके, मजदूर उम्मीदवार खड़ा हो सके; किसान उम्मीदवार खड़ा हो सके। गरीब पार्टी जो गरीब की पार्टी है, वह अपने उम्मीदवार खड़ा कर सके। सुनता है कोई ?

प्रेस रिपोटों से पता चलता है कि इस आंदोलन के द्वारा मैं दलविहीन लोकतंत्र की स्थापना करना चाहता हूँ। दलविहीन लोकतंत्र सर्वोदय विचार का मुख्य राजनीतिक सिद्धांत है और उस विचार का प्रचार पिछले वर्षों में मैं करता रहा हूँ, और ग्रामसभाओं के आधार पर दलविहीन प्रतिनिधित्व स्थापित हो सके, इसका प्रयत्न भी करता रहा हूँ। परंतु वर्तमान आंदोलन के संदर्भ में मैंने दलविहीन लोकतंत्र का जिक्र कतई नहीं किया है। फिर भी मेरे पुराने विचार को लेकर जनता में, विशेषकर बुद्धिजीवियों में, काफी भ्रम फैलाया गया है। केवल अपने कम्युनिस्ट भाइयों के भ्रामक प्रचार की सफाई के लिए इतना ही कहूँगा कि दलविहीन लोकतंत्र तो मार्क्सवाद तथा लेनिनवाद के मूल उद्देश्यों में से है, यद्यपि वह उद्देश्य दूर का है। माक्र्सवाद के अनुसार समाज जैसे-जैसे साम्यवाद की ओर बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे राज्य-स्टेट का क्षय होता जाएगा और अंत में एक स्टेटलेस सोसाइटी कायम होगी। वह समाज अवश्य ही लोकतांत्रिक होगा, बल्कि उसी समाज में लोकतंत्र का सच्चा स्वरूप प्रकट होगा और वह लोकतंत्र निश्चय ही दलविहीन होगा। जब स्टेटलेस सोसाइटी-शासन-मुक्त समाज बनता जाता है, तो वह शायद ही दलयुक्त होगा। आश्चर्य है कि कम्युनिस्ट बंधुओं को अपने इस मूल सिद्धांत का विस्मरण हो गया है।

जहाँ तक वर्तमान आंदोलन का प्रश्न है, मेरी या अन्य किसी की न छात्रों की, न विपक्षी राजनीतिक दलों की, न सर्वोदय सेवकों की यह कल्पना है कि इसमें से दलविहीन लोकतंत्र पैदा होगा। विधानसभा का विघटन हो जाएगा, तो छह महीने या वर्षभर में फिर चुनाव होंगे, जो वर्तमान कानून या चुनाव प्रणाली के अनुसार होंगे ।

विधानसभा के विघटन से संभावना तो यही है कि वर्तमान कानून तथा नियम आदि के अंतर्गत ही पुनर्निर्वाचन होगा। इसलिए प्रश्न उठता है, जैसा कि पिछले सप्ताहों में कई बार उठा भी है, कि उस हालत में विधानसभा के विघटन से क्या लाभ होगा ? मुझे खेद है कि इसका उत्तर पिछले दिनों मैंने बार-बार दिया है, पर उसको समझने की कोशिश थोड़े ही लोगों ने की है। इसलिए बार-बार मुझसे यह सवाल होता है कि जयप्रकाश नारायण वर्तमान चुनाव पद्धति और विधानसभा के चुनाव का कौन सा विकल्प पेश कर रहे हैं? मेरा अपना विकल्प चूँकि नए ढंग का है, जो घिसे-पिटे राजनीतिक चिंतन से भिन्न है, इसलिए वह लोगों की समझ में नहीं आता। अगर मैं यह कह दूँ कि मेरा विकल्प यह है कि मैं इस आंदोलन और संघर्ष में से एक नई पार्टी का निर्माण करूंगा, तो सब लोग मेरी बात आसानी से समझ लेंगे और उसके बाद मेरी आलोचना शुरू हो जाएगी कि यह आदमी केवल अपनी सत्ता के लिए छात्रों और जनता के आंदोलन का दुरुपयोग कर रहा है। लेकिन जब मैं कोई नई बात कहता हूँ तो उसको समझने की कोशिश कम होती है, या नहीं होती है। हो, क्या है मेरा कहना? संक्षेप में यह है कि आज की परिस्थिति में आम जनता की, आम मतदाता को केवल इतना ही अधिकार प्राप्त है कि वह चुनाव में अपना मतदान करें; परंतु मतदान प्रक्रिया न तो स्वच्छ और स्वतंत्र होती है, न उम्मीदवारों के चयन में मतदाताओं का हाथ होता है, और न चुनाव के बाद अपने प्रतिनिधियों पर उनका कोई अंकुश ही रहता है। में इन दोनों कमियों को दूर करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।

अपना देश पिछड़ा हुआ है, इसलिए बावजूद इसके कि हमने लोकतंत्र की स्थापना की है, विकसित देशों के लोकतांत्रिक समाज में जो प्रतिप्रभावी शक्तियाँ, यानी परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करने वाली शक्तियाँ होती हैं, जनमत का जो प्रचल प्रभाव प्रतिनिधियों पर निरंतर पड़‌ता है, जो स्वतंत्र और साहसी प्रेस, पत्र-पत्रिकाओं के रोल होते हैं, शिक्षित समुदाय का जो वैचारिक और नैतिक असर होता है, इस सारे इंफ्रास्ट्रक्बर का, यानी जनता और शासन के बीच की संरचना का, यहाँ नितांत अभाव है। ऐसी स्थिति में हमारा लोकतंत्र केवल नाममात्र का रह जाता है। इस पूरी अंतरिम संरचना का इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण तो एक दिन में नहीं हो सकता; परंतु उसके अभाव में आम जनता या मतदाता मतदान के सिवा कोई भी पार्ट अदा नहीं कर सकता, जिसके परिणामस्वरूप मंत्री तथा विधायक निरंकुश और स्वच्छंद हो जाते हैं, और जनता का किसी प्रकार का अंकुश उन पर नहीं रहता, सिवा इस भय के कि अगले चुनाव में जनता यदि चाहे तो उनको वोट नहीं दे, परंतु यह भय भी रुपया, जाति, बल-प्रयोग, मिथ्याचरण आदि के कारण निष्यभ हो जाता है। अब चौक प्रदेश के छात्र, युवक और सर्वसाधारण जनता जाग्रत हो गई है, वह आगे बढ़ रही है और कुछ नया चाहती है, वर्तमान परिस्थिति में परिवर्तन चाहती है। अतः इस परिस्थिति का लाभ उठाकर मैं चाहूँगा कि आज जो असंगठित जनता है, उसमें ऐसी शक्ति आ जाए कि वह सही आदमी का चुनाव कर सके तथा चुनाव के बाद अपने प्रतिनिधियों के आचरण पर यथासंभव अंकुश रख सके । इस संबंध में मेरे कुछ सुझाव हैं। एक तो यह है कि जब विधानसभा का अगला चुनाव हो, तो हमारी छात्र-संघर्ष तथा जन-संघर्ष समितियाँ मिल करके आम राय से अपना उम्मीदवार खड़ा करें, अथवा जो उम्मीदवार खड़े किए जाएँ, उनमें से किसी को मान्य करें। यदि इन समितियों के बीच आम राय नहीं होती है, तो हम कोई ऐसा रास्ता बनाएँगे, जिससे आपस में फूट हुए बगैर ये समितियाँ अपना उम्मीदवार खड़ा कर सकेंगी, या किसी एक उम्मीदवार को अपनी मान्यता दे सकेंगी। इस प्रकार के चुनाव में जनता का एक बहुत बड़ा पार्ट होगा, यानी जनता और छात्रों की संघर्ष समितियाँ उम्मीदवार के चयन में अपना महत्त्वपूर्ण रोल अदा करेंगी। दूसरी बात यह है कि जो भी उम्मीदवार अमुक चुनाव क्षेत्र से जीतेगा, उसके भावी कार्यक्रमों पर कड़ी निगरानी रखने का काम ये संघर्ष समितियाँ करेंगी, और अगर उस क्षेत्र का प्रतिनिधि गलत रास्ता पकड़ता है, तो उनको इस्तीफा देने को बाध्य करेंगी। इस प्रकार से जनता का अंकुश इन लोगों के ऊपर होगा और आज की तरह उच्छृंखल, आज की तरह निरंकुश और स्वचांद वे नहीं रह पणाएँगे ।

इस सिलसिले में एक और बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि जो संघर्ष समितियाँ छात्रों की या जनता की बन गई हैं या बन रही हैं, उनका काम केवल शासन से संघर्ष करना नहीं है, बल्कि उनका काम तो समाव के हर अन्याय और अनीति के विरुद्ध संघर्ष करने का होगा, और इस प्रकार से इन समितियों के लिए बराबर एक महत्त्वपूर्ण कार्य रहेगा। गाँव में छोटे अफसरों या कर्मचारियों की-चाहे वे पुलिस के हों या अन्य किसी प्रकार के जो घूसखोरी चलती है, उसके खिलाफ तो संघर्ष रहेगा ही। साथ-साथ जिन बड़े किसानों ने बेनामी या फर्जी बंदोबस्तियों की हैं, उनका भी विरोध ये समितियाँ करेंगी और उनको दुरुस्त करने के लिए संघर्ष करेंगी। गाँव में तरह-तरह के अन्याय होते हैं, मेरी कल्पना है कि ये समितियाँ उन अन्यायों को भी रोकेंगी। इस प्रकार से जनता की या छात्रों की ये निर्दलीय संघर्ष समितियाँ स्थाई रूप से कायम रहेंगी और कंवल लोकतंत्र के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, नैतिक क्रांति के लिए अथवा संपूर्ण क्रांति के लिए एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य करेंगी।

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