अध्याय 1: बातचीत

 इसे तो सभी स्वीकार करेंगे कि अनेक प्रकार की शक्तियाँ जो वरदान की भाँति ईश्वर ने मनुष्य को दी हैं, उनमें वाक्शक्ति भी एक है। यदि मनुष्य की और इंद्रियाँ अपनी-अपनी शक्तियों में अविकल रहतीं और वाक्शक्ति मनुष्यों में न होती तो हम नहीं जानते कि इस गूँगी सृष्टि का क्या हाल होता । सब लोग लुंज-पुंज से हो मानो कोने में बैठा दिए गए होते और जो कुछ सुख-दुख का अनुभव हम अपनी दूसरी-दूसरी इंद्रियों के द्वारा करते, उसे अवाक् होने के कारण, आपस में एक-दूसरे से कुछ न कह-सुन सकते । इस वाक्शक्ति के अनेक फायदों में 'स्पीच' वक्तृता और बातचीत दोनों हैं। किंतु स्पीच से बातचीत का ढंग ही निराला है। बातचीत में वक्ता को नाज-नखरा जाहिर करने का मौका नहीं दिया जाता है कि वह बड़े अंदाज से गिन-गिनकर पाँव रखता हुआ पुलपिट पर जा खड़ा हो और पुण्याहवाचन या नांदीपाठ की भाँति घड़ियों तकं साहबान मजलिस, चेयरमैन, लेडीज एंड जेंटिलमेन की बहुत सी स्तुति करे-करावे और तब किसी तरह वक्तृता का आरंभ करे। जहाँ कोई मर्म या नोक की चुटीली बात वक्ता महाशय के मुख से निकली कि ताली ध्वनि से कमरा गूँज उठा। इसलिए वक्ता को खामख्वाह ढूँढ़कर कोई ऐसा मौका अपनी वक्तृता में लाना ही पड़ता है जिसमें करतलध्वनि अवश्य हो ।

वहीं हमारी साधारण बातचीत का कुछ ऐसा घरेलू ढंग है कि उसमें न करतलध्वनि का कोई मौका है, न लोगों के कहकहे उड़ाने की कोई बात ही रहती है। हम दो आदमी प्रेमपूर्वक संलाप कर रहे हैं। कोई चुटीली बात आ गई, हँस पड़े। मुसकराहट से होठों का केवल फड़क उठना ही इस हँसी की अंतिम सीमा है। स्पीच का उद्देश्य सुननेवालों के मन में जोश और उत्साह पैदा कर देना है। घरेलू बातचीत मन रमाने का ढंग है। उसमें स्पीच की वह संजीदगी बेकदर हो धक्के खाती फिरती है।

जहाँ आदमी की अपनी जिंदगी मजेदार बनाने के लिए खाने, पीने, चलने, फिरने आदि की जरूरत है, वहाँ बातचीत की भी उसको अत्यंत आवश्यकता है। जो कुछ मवाद या धुआँ जमा रहता है, वह बातचीत के जरिए भाप बनकर बाहर निकल पड़ता है। चित्त हल्का और स्वच्छ हो परम आनंद में मग्न हो जाता है। बातचीत का भी एक खास तरह का मजा होता है। जिनको बातचीत करने की लत पड़ जाती है, वे इसके पीछे खाना-पीना भी छोड़ बैठते हैं। अपना बड़ा हर्ज कर देना उन्हें पसंद आता है, पर वे बातचीत का मजा नहीं खोना चाहते । राबिंसन ब्रूसो का किस्सा बहुधा लोगों ने पढ़ा होगा जिसे 16 वर्ष तक मनुष्य-मुख देखने को भी नहीं मिला। कुत्ता, बिल्ली आदि जानवरों के बीच में रह 16 वर्ष के उपरांत उसने फ्राइडे के मुख से एक बात सुनी। यद्यपि उसने अपनी जंगली बोली में कहा था, पर उस समय रॉबिंसन को ऐसा आनंद हुआ मानी उसने नए सिरे से फिर से आदमी का चोला पाया। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य की वाक्राक्ति में कहाँ तक लुभा लेने की ताकत है। जिनसे केवल 'पत्र-व्यवहार' है, कभी एक बार भी साक्षात्कार नहीं हुआ, उन्हें अपने प्रेमी से बातें करने की कितनी लालसा रहती है। अपना आभ्यंतरिक भाव दूसरे पर प्रकट करना और उसका आशय आप ग्रहण कर लेना शब्दों के ही द्वारा हो सकता है। सच है, जब तक मनुष्य बोलता नहीं तब तक उसका गुण-दोष प्रकट नहीं होता। बैन जानसन का यह कहना कि बोलने से ही मनुष्य के रूप का साक्षात्कार होता है, बहुत ही उचित जान पड़ता है।

इस बातचीत की सीमा दो से लेकर वहाँ तक रखी जा सकती है, जहाँ तक उनकी जमात मीटिंग या सभा न समझ ली जाए। एडीसन को मठ है कि असल बातचीत सिर्फ दो व्यक्तियों में हो सकती है, जिसका तात्पर्य यह हुआ कि जब दो आदमी होते हैं तभी अपना दिल एक दूसरे के सामने खोलते हैं। जब तीन हुए तब वह दो की बात कोसों दूर गई। कहा भी है कि छह कानों में पड़ी बात खुल जाती है। दूसरे यह कि किसी तीसरे आदमी के आ जाते ही या तो वे दोनों अपनी बातचीत से निरस्त हो बैठेंगे या उसे निपट मूर्ख अज्ञानी समझ बनाने लगेंगे।

जैसे गरम दूध और ठंडे पानी के दो बर्तन पास-पास साट के रखे जाएँ तो एक का असर दूसरे में पहुँच जाता है, अर्थात दूध ठंढा हो जाता है और पानी गरम, वैसे ही दो आदमी पास बैठे हों तो एक का गुप्त असर दूसरे पर पहुँच जाता है, चाहे एक दूसरे को देखें भी नहीं, तब बोलने को कौन कहे, एक के शरीर की विद्युत दूसरे में प्रवेश करने लगती है। अब पास बैठने का इतना असर होता है तब बातचीत में कितना अधिक असर होगा, इसे कौन न स्वीकार करेगा। अस्तु, अब इस बात को तीन आदमियों के साथ देखना चाहिए। मानो एक त्रिकोण सा बन जाता है। तीनों चित्त मानो तीन कोण हैं और तीनों की मनोवृत्ति के प्रसरण की धारा मानो उस त्रिकोण की तीन रेखाएँ हैं। गुप-चुप असर तो उन तीनों में परस्पर होता ही है। जो बातचीत तीन में की गई, वह मानो अँगूठी में नग सी जड़ जाती है। उपरांत जब चार आदमी हुए तब बेतकल्लुफी को बिलकुल स्थान नहीं रहता। खुल के बातें न होंगी। जो कुछ बातचीत की जाएगी वह 'फॉर्मेलिटी' गौरव और संजीदगी के लच्छे में सनी हुई होगी। चार से अधिक की बातचीत तो केवल राम-रमौवल कहलाएगी। उसे हम संलाप नहीं कह सकते। इस बातचीत के अनेक भेद हैं। दो बुड्‌ढों की बातचीत प्रायः जमाने की शिकायत पर हुआ करती है। वे बाबा आदम के समय की ऐसी दास्तान शुरू करते हैं; जिसमें चार सच तो दस झूठ। एक बार उनकी बातचीत का घोड़ा छूट जाना चाहिए, पहरों बीत जाने पर भी अंत न होगा। प्रायः अंग्रेजी राज्य, परदेश और पुराने समय की रीति-नीति का अनुमोदन और इस समय के सब भाँति लायक नौजवानों की निंदा उनकी बातचीत का मुख्य प्रकरण होगा। पढ़े-लिखे हुए के लिए तो शेक्सपियर, मिल्टन, मिल और स्पेंसर जीभ पर नाचा करेंगे। अपनी लियाकत के नशे में चूर 'हमचुनी दोगरे नेस्त' अक्खड्पन की चर्चा खेड़ेंगे। दो हम सहेलियों की बातचीत का कुछ जायका ही निराला है। रस का समुद्र मानो उमड़ा चला आ रहा है। इसका पूरा स्वाद उन्हीं से पूछना चाहिए जिन्हें ऐसों की रस सनी बात सुनने को कभी भाग्य लड़ा है।

दो बुदियों की बातचीत का मुख्य प्रकरण, बहू-बेटी वाली हुई तो, अपनी बहुओं या बेटों का गिला शिकवा होगा। या वे बिरादराने का कोई ऐसा रमरसरा खेड़ बैठेंगी कि बात करते-करते अंत में खोदे दाँत निकाल लड़ने लगेंगी। लड़कों को बातचीत, खिलाड़ी हुए तो, अपनी-अपनी तारीफ करने के वाद वे कोई सलाह गाँठेंगे जिससे उनको अपनी शैतानी जाहिर करने का पूरा मौका मिले। स्कूल के लड़कों की बातचीत का उद्देश्य अपने उस्ताद की शिकायत या तारीफ या अपने सहपाठियों में किसी के गुन-औगुन का कथोपकथन होता है। पढ़ने में कोई लड़‌का तेज हुआ तो कभी अपने सामने दूसरे को कुछ न गिनेगा । सुस्त और बोदा हुआ तो दबी बिल्ली का सा स्कूल भर को अपना गुरु ही मानेगा। इसके अलावा बातचीत की और बहुत सी किस्में हैं। राजकाज की बात, व्यापार संबंधी बातचीत, दो मित्रों में प्रेमालाप इत्यादि । हमारे देश में अशिक्षित लोगों में बतकही होती है। लड़‌की लड्‌ङ्केवालों की ओर से एक-एक आदमी बिचवई होकर दोनों में विवाह संबंध की कुछ बातचीत करते हैं। उस दिन से बिरादरीवालों को जाहिर कर दिया जाता है कि अमुक की लड़‌की का अमुक के लड़के के साथ विवाह पक्का हो गया और यह रसम बड़े उत्सव के साथ की जाती है। चंडूखाने की बातचीत भी निराली होती है। निदान, बात करने के अनेक प्रकार और ढंग हैं।

योरप के लोगों में बात करने का हुनर है। 'आर्ट ऑफ कनवरसेशन' यहाँ तक बढ़ा है कि स्पीच और लेख दोनों इसे नहीं पाते। इसकी पूर्ण शोभा काव्यकला प्रवीण विद्वन्मंडली में है। ऐसे चतुराई के प्रसंग छेड़े जाते हैं कि जिन्हें सुन कान को अत्यंत सुख मिलता है। सुहृद गोष्ठी इसी का नाम है। सुइद गोष्ठी की बातचीत की यह तारीफ है कि बात करनेवालों की लियाकत अथवा पंडिताई का अभिमान या कपट कहीं एक बात में भी प्रकट न हो, वरन् क्रम में रसाभास पैदा करनेवाले शब्दों को बरकते हुए चतुर समाने अपनी बातचीत को सरस रखते हैं। वह रस हमारे आधुनिक शुष्क पंडित की बातचीत में, जिसे शास्वार्थ कहते हैं, कभी आवेगा ही नहीं। मुर्ग और बटेर की लड़ाइयों की झपटा-झपटी के समान उनकी नीरस काँव-काँव में सरस संलाप की चर्चा ही चलाना व्यर्थ है, वरन् कपट और एक दूसरे को अपने पांडित्य के प्रकाश से बाद में परास्त करने का संघर्ष आदि रसाभास की सामग्री वहाँ बहुतायत के साथ आपको मिलेगी। घंटे भर तक काँव-काँव करते रहेंगे तो कुछ न होगा। बड़ी-बड़ी कंपनी और कारखाने आदि बड़े से बड़े काम इसी तरह पहले दो-चार दिली दोस्तों की बातचीत से शुरू किए गए। उपरांत बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक बड़े कि हजारों मनुष्यों की उनसे जीविका चलने लगी और साल में लाखों की आमदनी होने लगी। पच्चीस वर्ष के ऊपरवालों की बातचीत अवश्य ही कुछ न कुछ सारगर्भित होती होगी, अनुभव और दूरदेशी से खाली न होगी और पच्चीस से नीचे की बातचीत में यद्यपि अनुभव, दूरदर्शिता और गौरव नहीं पाया जाता, पर इसमें एक प्रकार का ऐसा दिलबहलाव और ताजगी रहती है जिसकी मिठास उससे दस गुनी चढ़ी-बढ़ी है।

यहाँ तक हमने बाहरी बातचीत का हाल लिखा है जिसमें दूसरे फरीक के होने को बाहुत आवश्यकता है, बिना किसी दूसरे मनुष्य के हुए जो किसी तया संभव नहीं है और जो दो ही तरह पर हो सकता है-या तो कोई हमारे यहाँ कृपा करे या हमीं जाकर दूसरे को कृतार्थ करें। पर यह सब तो दुनियादारी है जिसमें कभी-कभी रसाभास होते देर नहीं लगती। क्योंकि जो महाशय अपने यहाँ पधारें उनकी पूरी दिलजोई न हो सकती तो शिष्टाचार में त्रुटि हुई। अगर हमों उनके यहाँ गए तो पहले तो बिना बुलाए जाना हो अनादर का मूल है और जाने पर अपने मन माफिक बर्ताव न किया गया तो मानो दूसरे प्रकार का नया घाव हुआ। इसलिए सबसे उत्तम प्रकार बातचीत करने का हम यही समझते हैं कि हम वह शक्ति अपने में पैदा कर सकें कि अपने आप बात कर लिया करें। हमारी भीतरी मनोवृत्ति प्रतिक्षण नए-नए रंग दिखाया करती है, वह प्रपंचात्मक संसार का एक बड़ा भारी आईना है, जिसमें जैसी चाहो वैसी सूरत देख लेना कुछ दुर्घट बात नहीं है और जो एक ऐसा चमनिस्तान है जिसमें हर किस्म के बेल-बूटे खिले हुए हैं, ऐसे चमनिस्तान की और में क्या कम दिलबहलाव है ? मित्रों का प्रेमालाप कभी इसकी सोलहवीं कला तक भी न पहुँच सका । इसी सैर का नाम ध्यान या मनोयोग या चित्त को एकाग्र करना है जिसका साधन एक-दो दिन का काम नहीं। बरसों के अभ्यास के उपरांत यदि हम थोड़ी भी अपनी मनोवृत्ति स्थिर कर अवाक् हो अपने मन के साथ बातचीत कर सकें तो मानो अहोभाग्य! एक वाक्‌शक्ति मात्र के दमन से न जाने कितने प्रकार का दमन हो गया। हमारी जिह्वा कतरनी के समान सदा स्वच्छंद चला करती है, उसे यदि हमने काबू में कर लिया तो क्रोधादिक बड़े-बड़े अजेय शत्रुओं को बिना प्रयास जीत अपने वश में कर डाला। इसलिए अवाक् रह अपने बातचीत करने का यह साधन यावत् साधनों का मूल है, शक्ति परम पूज्य मंदिर है, परमार्थ का एकमात्र सोपान है।

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