अध्याय 13: शिक्षा (जे० कृष्णमूर्ति)
यदि आपने कभी अपने आपसे यह पूछा हो कि शिक्षा का अर्थ क्या है तो यह मेरे लिए सचमुच आश्चर्य की बात होगी। आप विद्यालय क्यों जाते हैं? आप विविध विषय क्यों पढ़ते हैं ? क्यों आप परीक्षाएँ उत्तीर्ण करते हैं, और ऊँचा स्थान प्राप्त करने के लिए दूसरों के साथ स्पर्धा करते हैं? आखिर क्या अर्थ है इस तथाकथित शिक्षा का ? यह सब कुछ क्या है ? यह सचमुच अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है-केवल विद्यार्थियों के लिए ही नहीं अपितु माता-पिता के लिए, शिक्षकों के लिए और उन समस्त व्यक्तियों के लिए जो इस वसुधा से प्रेम करते हैं। शिक्षित होने के लिए हम संघर्ष क्यों करते हैं ? हम कुछ परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लें, किसी उद्योग में लग जाएँ, क्या शिक्षा का बस इतना ही कार्य है अथवा शिक्षा का कार्य है कि वह हमें बचपन से ही जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया समझने में सहायता करे ? कुछ उद्योग करना और अपनी जीविका कमाना जरूरी है; लेकिन क्या यही सब कुछ है ? क्या हम केवल इसीलिए शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं ? निस्संदेह केवल उद्योग या कोई व्यवसाय ही जीवन नहीं है। जीवन बड़ा अद्भुत है, यह असीम और अगाध है, यह अनंत रहस्यों को लिए हुए है, यह एक विशाल साम्राज्य है जहाँ हम मानव कर्म करते हैं और यदि हम अपने आपको केवल आजीविका के लिए तैयार करते हैं तो हम जीवन का पूरा लक्ष्य ही खो देते हैं। कुछ परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लेने और गणित, रसायनशास्त्र अथवा अन्य किसी विषय में प्रवीणता प्राप्त कर लेने की अपेक्षा जीवन को समझना कहीं ज्यादा कठिन है।
अतः हम चाहे शिक्षक हों या विद्यार्थी, हमें अपने आपसे क्या यह पूछना आवश्यक नहीं है कि हम क्यों शिक्षित कर रहे हैं अथवा शिक्षित हो रहे हैं ? जीवन कितना विलक्षण है! ये पक्षी, ये फूल, ये वैभवशाली वृक्ष, यह आसमान, ये सितारे, ये सरिताएँ, ये मत्स्य, यह सब हमारा जीवन है ! जीवन दीन है, जीवन अमीर भी ! जीवन समुदायों, जातियों और देशों का पारस्परिक सतत संघर्ष है, जीवन ध्यान है, जीवन धर्म भी ! जीवन गूढ़ है, जीवन मन की प्रच्छन्न वस्तुएँ हैं- ईर्ष्याएँ, महत्त्वाकांक्षाएँ, वासनाएँ, भय, सफलताएँ, चिंताएँ । केवल इतना ही नहीं अपितु इससे कहीं ज्यादा जीवन है ! लेकिन बहुधा हम अपने आपको जीवन के केवल एक छोटे से कोने को समझने के लिए ही तैयार करते हैं। हम कुछ परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लेते हैं, कोई उद्योग ढूँढ़ लेते हैं, हम विवाह कर लेते हैं, बच्चे पैदा कर लेते हैं और इस प्रकार अधिकाधिक यंत्रवत बन जाते हैं। हम सदैव जीवन से भयाकुल, चिंतित और भयभीत बने रहते हैं । अतएव शिक्षा का कार्य है कि वह संपूर्ण जीवन की प्रक्रिया को समझने में हमारी सहायता करे; न कि हमें केवल कुछ व्यवसाय या ऊँची नौकरी के योग्य बनाए ।
क्या होगा हम सबके साथ जब हम प्रौढ़ हो जाएँगे ? क्या आपने कभी सोचा भी है कि आप बड़े होने पर क्या करनेवाले हैं ? ज्यादा से ज्यादा संभावना तो यही है कि आप बड़े होने पर विवाह करेंगे और इससे पहले कि आप यह ज्ञाप्त कर सकें कि आप कहाँ हैं, आप माता या पिता बन जाएँगे । तब आप किसी व्यवसाय अथवा रसोईघर से बंध जाएँगे और वहीं आप क्रमशः क्षीण होते रहेंगे ! क्या इसी प्रकार का होनेवाला है आपका जीवन ? क्या आपने स्वयं से यह कभी पूछा भी है ? क्या आपको यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए ? मानो आप एक सुसंपन्न परिवार के हैं, आपकी प्रतिष्ठा पहले से ही सुरक्षित है, आपके पिता आपको आरामदायक कार्य दे देंगे, आप बड़ी शान से विवाह कर लेंगे फिर भी तो आप क्षीण होंगे, नष्ट होंगे ! क्या आप यह देख रहे हैं ?
निश्चित रूप से शिक्षा व्यर्थ साबित होगी, यदि वह आपको, इस विशाल और विस्तीर्ण जीवन को, इसके समस्त रहस्यों को, इसकी अद्भुत रमणीयताओं को, इसके दुखों और हर्षों को समझने में सहायता न करे ! भले ही आप ढेरों उपाधियाँ प्राप्त कर लें और अपने नाम के आगे इनकी कतार लगा लें, चाहे बहुत ऊँचा व्यवसाय प्राप्त कर लें, लेकिन यह सब कुछ पा लेने के बाद क्या होगा ? यदि आपका मन ही इस पाने की प्रक्रिया में कुंठित, चिंतित और रुक्ष बन जाए तो फिर क्या अर्थ होगा इसे पाने का ? इसलिए आपको किशोरावस्था से ही खोजना होगा कि यह जीवन क्या है ? और शिक्षा का क्या यह प्रमुख कार्य नहीं कि वह आप में उस मेधा का उद्घाटन करे जिससे आप इन समस्त समस्याओं का हल खोज सकें । क्या आप यह जानते हैं कि यह मेधा क्या है ? निस्संदेह यह मेधा वह शक्ति है जिससे आप भय और सिद्धांतों की अनुपस्थिति में स्वतंत्रता के साथ सोचते हैं ताकि आप अपने लिए सत्य की, वास्तविकता की खोज कर सकें। यदि आप भयभीत हैं तो फिर आप कभी मेधावी नहीं हो सकेंगे। किसी भी प्रकार की महत्त्वाकांक्षा-फिर चाहे वह आध्यात्मिक हो या सांसारिक चिंता और भय को जन्म देती है; अतः यह ऐसे मन का निर्माण करने में सहायता नहीं कर सकती जो सुस्पष्ट हो, सरल हो, सीधा हो और दूसरे शब्दों में मेधावी हो ।
आप जानते हैं कि बचपन से ही आपका एक ऐसे वातावरण में रहना अत्यंत आवश्यक है जो स्वतंत्रतापूर्ण हो । हममें से अधिकांश व्यक्ति ज्यों-ज्यों बड़े होते जाते हैं, त्यों-त्यों ज्यादा भयभीत होते जाते हैं, हम जीवन से भयभीत रहते हैं, नौकरी के छूटने से, परंपराओं से और इस बात से भयभीत रहते हैं कि पड़ोसी, पत्नी या पति क्या कहेंगे, हम मृत्यु से भयभीत रहते हैं। हममें से अधिकांश व्यक्ति, किसी न किसी रूप में भयभीत हैं और जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं है। क्या यह संभव नहीं है कि हम बचपन से ही एक ऐसे वातावरण में रहें जहाँ भय न हो, जहाँ स्वतंत्रता हो-मनचाहे कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं, अपितु एक ऐसी स्वतंत्रता जहाँ आप जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया समझ सकें। हमने जीवन को कितना कुरूप बना दिया है; सचमुच जीवन के इस ऐश्वर्य की, इसकी अनंत गहराई और इसके अद्भुत सौंदर्य की धन्यता तो तभी महसूस कर सकेंगे जब आप प्रत्येक वस्तु के खिलाफ विद्रोह करेंगे संगठित धर्म के खिलाफ, परंपरा के खिलाफ और इस सड़े हुए समाज के खिलाफ ताकि आप एक मानव की भाँति अपने लिए सत्य की खोज कर सकें। अनुकरण करना शिक्षा नहीं है। क्या यह सत्य नहीं है? आपके माता-पिता, आपके शिक्षक और आपके समाज ने जो कुछ कहा है उसे मान लेना बड़ा आसान है। यह जीवित रहने का सुरक्षित और आसान मार्ग है लेकिन ऐसा जीवन 'जीवन' नहीं है क्योंकि इसमें भय है, हास है, मृत्यु है। जिंदगी का अर्थ है अपने लिए सत्य की खोज और यह तभी संभव है जब स्वतंत्रता हो, जब आपके अंतर में सतत क्रांति की ज्वाला प्रकाशमान हो ।
परंतु आपको इसके लिए कोई प्रोत्साहित ही नहीं करता। कोई भी आपको यह नहीं कहता कि आप प्रश्न करें, स्वयं खोजकर देखें कि परमात्मा क्या है? क्योंकि यदि आप इस प्रकार विद्रोह करेंगे तो आप समाज के लिए खतरा बन जाएँगे। आपके माता-पिता और आपका समाज चाहता है कि आप सुरक्षित रहें और आप स्वयं भी यही चाहते हैं। साधारणतया सुरक्षा में जीने का अर्थ है अनुकरण में जीना अर्थात भय में जीना । सचमुच शिक्षा का यह कार्य है कि वह हममें से प्रत्येक को स्वतंत्रतापूर्ण वातावरण के निर्माण के लिए प्रेरित करे ।
क्या आप यह जानते हैं कि इसका क्या अर्थ है? यह निर्भयतापूर्ण वातावरण निर्माण करने का कार्य बड़ा ही कठिन है। लेकिन हमें यह करना ही होगा क्योंकि हम देखते हैं कि पूरा का पूरा विश्व ही अंतहीन युद्धों में जकड़ा हुआ है और इसके मार्गदर्शक बने हैं वे राजनीतिज्ञ जो सतत शक्ति की खोज में लगे हैं। यह दुनिया वकीलों, सिपाहियों और सैनिकों की दुनिया है। यह उन महत्वाकांक्षी स्त्री-पुरुषों की दुनिया है जो प्रतिष्ठा के पीछे दौड़े जा रहे हैं और इसे पाने के लिए एक दूसरे के साथ संघर्षरत हैं। दूसरी ओर अपने-अपने अनुयायियों के साथ संन्यासी और धर्मगुरु हैं जो इस दुनिया में या दूसरी दुनिया में शक्ति और प्रतिष्ठा की चाह कर रहे हैं। यह विश्व ही पूरा पागल है, पूर्णतया भ्रांत। यहाँ एक ओर साम्यवादी पूँजीपति से लड़ रहा है तो दूसरी ओर समाजवादी दोनों का प्रतिरोध कर रहा है। यहाँ प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी के विरोध में खड़ा है और किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए, प्रतिष्ठा, सम्मान, शक्ति व आराम के लिए संघर्ष कर रहा है। यह संपूर्ण विश्व ही परस्पर विरोधी विश्वासों, विभिन्न वर्गों, जातियों, पृथक-पृथक विरोधी राष्ट्रीयताओं और हर प्रकार की मूढ़ता और क्रूरता में छिन्न-भिन्न होता जा रहा है और यह वही दुनिया है जिसमें रह सकने के लिए आप शिक्षित किए जा रहे हैं। आपको इस अभागे समाज के ढाँचे के अनुकूल बनने के लिए उत्साहित किया जा रहा है। आपके माता-पिता आप से यही चाहते हैं और आप स्वयं भी इसी में रहना चाहते हैं !
तब शिक्षा का कार्य क्या है ? क्या वह इस सड़े हुए समाज के ढाँचे के अनुकूल बनने में आपको सहायता करे या आपको स्वतंत्रता दे-पूर्ण स्वतंत्रता; कि आप एक भिन्न समाज का, एक नूतन विश्व का निर्माण कर सकें ? हमें ऐसी ही स्वतंत्रता की आवश्यकता है। सुदूर भविष्य में नहीं अपितु इसी क्षण, अन्यथा हम सभी नष्ट हो जाएँगे। हमें अविलंब एक स्वतंत्रतापूर्ण वातावरण तैयार करना होगा ताकि आप उसमें रहकर अपने लिए सत्य की खोज कर सकें, आप मेधावी बन सकें, ताकि आप अपने अंदर सतत एक गहरी मनोवैज्ञानिक विद्रोह की अवस्था में रह सकें। क्योंकि सत्य की खोज तो केवल वे ही कर सकते हैं जो सतत इस विद्रोह की अवस्था में रहते हैं, वे नहीं जो परंपराओं को स्वीकार करते हैं और उनका अनुकरण करते हैं। आप सत्य, परमात्मा अथवा प्रेम को तभी उपलब्ध हो सकते हैं जब आप अविच्छिन्न खोज करते हैं, सतत निरीक्षण करते हैं और निरंतर सीखते हैं। लेकिन आप भयभीत हैं, तब आप न तो खोज कर सकते हैं, न निरीक्षण कर सकते हैं, न सीख सकते हैं और न गहराई से जागरूक ही रह सकते हैं । अतः निर्विवाद रूप से शिक्षा का यह कार्य है कि वह इस आंतरिक और बाह्य भय का उच्छेदन करे-यह भय जो मानव के विचारों को, उसके संबंधों और उसके प्रेम को, नष्ट कर देता है।
यह पूछा जाता है-यदि सभी व्यक्ति क्रांति करेंगे तो क्या विश्व में अराजकता नहीं फैल जाएगी? लेकिन क्या हमारा वर्तमान समाज इतना सुव्यवस्थित है कि यह प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की गई क्रांति से अव्यवस्थित हो जाएगा ? क्या अभी अराजकता नहीं है? क्या प्रत्येक वस्तु सुंदर है, पवित्र है? क्या प्रत्येक व्यक्ति आनंद से, समृद्धि से, पूर्णता से जी पा रहा है? क्या व्यक्ति-व्यक्ति में बिरोध नहीं है? क्या चारों ओर महत्त्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्धा नहीं है? अतः हमें सर्वप्रथम यह समझ लेना है कि विश्व में पहले से ही अराजकता है। आप कहीं इसे सुव्यवस्थित न समझ बैठें। कहीं कुछ शब्दों से आप स्वयं को मोहित न कर लें। चाहे भारत हो, चाहे यूरोप, चाहे अमेरिका हो, चाहे रूस-संपूर्ण विश्व ही नाश की ओर अग्रसर हो रहा है। यदि आप सचमुच इसका क्षय देखते हैं तो यह आपके लिए एक चुनौती है। चुनौती है कि आप इस ज्वलंत समस्या का हल खोजें। आप इस चुनौती का उत्तर किस प्रकार देते हैं यह बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। क्या नहीं है? यदि आप इसका उत्तर एक हिंदू अथवा एक बौद्ध या एक ईसाई या एक साम्यवादी की भाँति देते हैं तब आप का यह प्रत्युत्तर ही नहीं होगा। आप इसका प्रत्युत्तर पूर्णता से तो तभी दे सकते हैं जब आप अभय हों, आप एक हिंदू या एक साम्यवादी या एक पूंजीपति की भाँति न सोचें अपितु एक समग्र मानव की भाँति इस समस्या का हल खोजने का प्रयत्न करें। आप इस समस्या का तब तक हल नहीं कर सकते जब तक कि आप स्वयं संपूर्ण समाज के खिलाफ क्रांति नहीं करते, इस महत्त्वाकांक्षा के खिलाफ विद्रोह नहीं करते, जिस पर संपूर्ण मानव समाज आधारित है। जब आप स्वयं महत्त्वाकांक्षी नहीं हैं, परिग्रही नहीं हैं एवं अपनी ही सुरक्षा से चिपके हुए नहीं हैं, तभी इस चुनौती का प्रत्युत्तर दे सकेंगे। तभी आप नूतन विश्व का निर्माण कर सकेंगे। क्रांति करना, सीखना और प्रेम करना ये तीनों पृथक-पृथक प्रक्रियाएँ नहीं हैं।
जब आप वास्तव में सीख रहे होते हैं तब पूरा जीवन ही सीखते हैं। तब आपके लिए कोई गुरु ही नहीं रह जाता है। तब प्रत्येक वस्तु आपको सिखाता है-एक सूखी पत्ती, एक उड़ती हुई चिड़िया, एक खुशबू, एक आँसु, एक्त धनी, वे गरीब जो चिल्ला रहे हैं, एक महिला की मुस्कराहट, किसी का अहंकार। आप प्रत्येक वस्तु से सीखते हैं, अतः कोई मार्गदर्शक नहीं, कोई दार्शनिक नहीं, कोई गुरु नहीं। तब आपका जीवन स्वयं आपका गुरु है और आप सतत सीखते रहते हैं।
आप जिस विषय का अध्ययन कर रहे हैं उसमें आपकी दिलचस्पी नहीं है। अतः आपके शिक्षक आप को ध्यान देने के लिए मजबूर करते हैं। लेकिन ध्यान का यह अर्थ कदापि नहीं है। ध्यान का आगमन तो अपने अप होता है जब आप किसी वस्तु में गहरी दिलचस्पी रखते हैं, जब आप उसके संबंध में प्रेम से खोजते हैं ताकि उसे आप पूर्णतया समझ सकें, उस समय आपका संपूर्ण मन, आपकी समग्र सत्ता उसी में रहती है। ठीक इसी भाँति जिस क्षण आप गहराई से यह महसूस कर लेते हैं कि "यदि हम महत्त्वाकांक्षी नहीं होंगे तो क्या हमारा ह्रास न होगा" अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
महत्त्वाकांक्षा अच्छी है या बुरी यह न पूछते हुए हम सर्वप्रथम यह ज्ञात करें कि क्या महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति अपना ही नाश नहीं कर रहा है? आप अपने आस-पास देखें और उन व्यक्तियों का निरीक्षण करें जो महत्त्वाकांक्षी है। जब आप महत्त्वाकांक्षी होते हैं तब क्या घटित होता है? तब आप केवल अपने ही संबंध में सोचते हैं, क्या नहीं सोचते ? तब आप क्रूर बन जाते हैं और अन्य व्यक्तियों को एक ओर ढकेल देते हैं, क्योंकि आपको अपनी महत्त्वाकांक्षा जो पूरी करनी है। आपको बड़ा व्यक्ति जो बनना है। ऐसा कर आप समाज में असफल और सफल व्यक्तियों के बीच में संघर्ष पैदा कर देते हैं। इस प्रकार आप में और उन व्यक्तियों में जो आपकी ही भाँति महत्त्वाकांक्षी हैं, निरंतर युद्ध चलता रहता है। क्या इस संघर्ष से जीवन सृजनशील बन सकता है? क्या आप मेरी बात समझ रहे हैं अथवा यह समझना आपके लिए बहुत कठिन है ?
क्या आप उस समय महत्त्वाकांक्षी रहते हैं जब आप सहज प्रेम से कोई कार्य सिर्फ कार्य के लिए करते हैं ? जब आप कोई कार्य अपनी समग्रता से करते हैं इसलिए नहीं कि उससे आप कहीं पहुँचना चाहते हैं, कोई लाभ उठाना चाहते हैं अथवा कोई ऊँचा परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं, परंतु इसलिए कि उसके करने में आप प्रेम अनुभव करते हैं-अतः यह महत्त्वाकांक्षा नहीं है, है क्या? तब वहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती है। तब आप प्रथम स्थान पाने के लिए संघर्ष नहीं करते हैं। अतः क्या शिक्षा का यह कार्य नहीं कि वह आपको यह खोजने में सहायता करे कि आप सचमुच कौन सा कार्य प्रेम से करना पसंद करते हैं ? ताकि आप प्रारंभ से अंत तक वही कार्य करें, जिसे आप बहुत अच्छा समझते हों और जो आपके लिए गंभीर अर्थ लिए हुए हो, अन्यथा आप अंत तक अपने आपको अभागा समझते रहेंगे ! सचमुच कौन सा कार्य आप प्रेम से करना चाहते हैं, यह नहीं समझकर यदि आप कोई कार्य महज आदतन किए जाते हैं तो उस कार्य से आपको केवल ऊब, ह्रास और मृत्यु प्राप्त होती है। अतः आपको बचपन से ही यह जान लेना अत्यंत आवश्यक है कि आप कौन सा कार्य सचमुच प्रेम से करना चाहते हैं। नूतन समाज के निर्माण के लिए यही एकमात्र मार्ग है।
जब हम अपनी पूरी शक्ति के साथ एक नूतन विश्व के निर्माण करने की आवश्यकता महसूस करते हैं, जब हममें से प्रत्येक व्यक्ति पूर्णतया मानसिक और आध्यात्मिक क्रांति में होता है, तब हम अवश्य अपना हृदय, अपना मन और अपना समस्त जीवन इस प्रकार के विद्यालयों के निर्माण में लगा देते हैं, जहाँ न तो भय हो और न तो उससे लगा फँसाव ही ।
बहुत थोड़े व्यक्ति ही वास्तव में क्रांति के जनक होते हैं। वे खोजते हैं कि सत्य क्या है और उस सत्य के अनुसार आचरण करते हैं, परंतु सत्य की खोज के लिए परंपराओं से मुक्ति तो आवश्यक है, जिसका अर्थ है समस्त भयों से मुक्ति ।
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